Monday 13 August 2012

मुझे लगाता है डर

मुझे लगता है डर
भगवन से नहीं आदमी से
दुसमन से नहीं दोंस्तों से
काँटों से नहीं फूलों से
मुझे लगता है डर
रात के अंधेरों से नहीं
दिन के उजालों से
किसी की बातों से नहीं
चेहरे की खामोशियों से
मुझे लगता है डर
इनकार से नहीं प्यार से 
बेवफाई से नहीं वफ़ा से
इंतजार से नहीं उम्मीदों से 
मुझे लगता है डर
अजनबी शहर में नहीं
अपनों की भीड़ में 
यहाँ नहीं है कोई अपना सा
न अपेक्षा है किसी से
न आशा है कुछ पाने की 
यहाँ नहीं है कोई अपना सा 
हा मुझे लगता है डर .............

सोंचता है ये पल

सोंचता है ये पल 
आज नहीं तो कल 
ये शमा गुन-गुनायेगी 
ये वादियाँ मुस्कुराएगी 
झिलमिल सितारों में 
मै भी कही दूर 
तन्हा नजर आऊंगा, 
सोंचता है ये  पल  
आज नहीं तो कल 
मेरे जहन में भी आएगी ख़ुशी 
घर के चौखट से दूर होगा अँधेरा 
चुपके से ख़ुशी आकर 
हर गम को दूर करेगी, 
सोंचता है ये पल
आज नहीं तो कल
मिटेगी सदियों की ख़ामोशी 
दूर होगी ये चेहरे की उदासी 
हम भी मुस्कुराएंगे 
हम भी गुनगुनायेंगे 
उम्मीदों की दहलीज पर 
यूं ही इंतजार करते जायेंगे -------------!

क्या मजाल कि रिक्शा वाले भी बिना सुने गुजर जाये


- यादों के झरोखे से पटना का दशहरा
 पद्मश्री गजेंद्र नारायण सिंह, संगीत कलाविद् 


‘ सब जिंदगी का हुस्र चुरा ले गया कोई, यादों की कायनात मेरे पास रह गयी’. आज भी मुझे याद है दशहरे के मौके पर 1978 में किशोरी अमोणकर की वो गायकी जब एक गाय भी उनके गाने सुनने के लिए साउंड बॉक्स में आधे घंटे तक कान लगायी थी. 1963-65 में उस्ताद शराफत हुसैन खां के गाने के अलाप पर रिक्शा वाले भी सवारी को छोड़ कर संगीत सुना करते थे. विनायक वुआ पटवर्धन का गायन सुनने के लिए राजधानीवासी बारिश में भी टस से मस नहीं हुए थे. रात-रात भर पटना की सड़कों पर, नुक्कड़ों, गलियों में खुला पंडाल लगा कर संगीत जलसा किया जाता था. भारतवर्ष में कई जगहों का दशहरा मशहूर है. कोलकाता, कुलू, मनाली और मैसूर का दशहरा जहां विधिवत पूजा प्रतिमा तथा रंगोल्लास और भव्य रियासती जुलूस के लिए जाना जाता है वहीं पटना का दशहरा संगीत जलसों के लिए विख्यात था. जब उन गाने वाले लम्हों को याद करता हूं तो बड़ा सुकून मिलता है दिल को. अब न वे दिन रहे न वैसा माहौल रहा और न वैसे तबीयतदार गाने बजाने वाले रहे.


पटना में 1944 में गोविंद मित्रा रोड से संगीत जलसे का श्रीगणेश हुआ. आधी सदी से भी अधिक समय तक चलने वाले इस वैशिष्ट्यपूर्ण संगीत समारोह में जो बाद में मारूफ गंज, पटना सिटी में झुनझुनवाला  लेन, दानापुर तक आयोजित होने लगा. देश के तमाम गाने बजाने वालों का पड़ाव सप्तमी से लेकर दशमी तक पटना में रहता था. पचास के दशक से लेकर अस्सी नब्बे के दशकों तक दशहरा के  अवसर पर आयोजित संगीत महफिलों में स्वर, राग, लय ताल क ी ऐसी अविस्मरणीय प्रस्तुतियां हुई जिसे देखने और सुनने का सुयोग इस नाचीज को प्राप्त  हुआ. आज भी मेरे जेहन में खुले पंडालों में गाये बजाये उन लम्हों की मीठी यादें हैं जिसे स्मरण कर रोमांचित हो उठता हूं.

1958 का दशहरा गोविंद मित्रा रोड. मैं पटना कॉलेज में बीए आनर्स का छात्र था. पंडित भीमसेन जोशी, इलियास खां एवं नामी गिरामी संगीतकार जलसे में शिरकत करने आये थे. सप्तमी से नवमी तीन रात पटनावासी घरों में ताला जड़ कर पंडालों और सड़कोें पर ही बिताते थे. बडा कठिन हो जाता था कि से सुने कहां जायें और कहां नहीं. मारुफगंज से लेकर दानापुर तक बारह किलोमीटर में पसरा पटना संगीतमय हो जाता था.

भारत माता मंडली लंगर टोली गोविंद मित्रा रोड से बिल्कुल सटा हुआ. आप आश्चर्य करेंगे कि आधे मील की परिधि के चार जगह महफिलें जमती थी. गोविंद मित्रा रोड और लंगर टोली के बीचोबीच मछुआ टोली और उससे थोड़ी दूर पूरब में खजांची रोड नया टोला. लंगर टोली में अष्टमी नवमी को रात भर गाना बजाना होता था. मुझे खूब याद है यहां प्रख्यात उस्ताद अहमद जान थिरकवा का तबला सोलो, कोई दो घंटे तक बजा था और क्या मजाल कि कोई रिक्शा बाला बिना सुने वहां से गुजर जाता. सुनने वाले लोग थे कि तबला जैसा शुष्क वाद्य यंत्र को दो घंटे तक दम साध के सुनते रहे. तो ऐसा गाना बजाना था दशहरे के अवसर पर कि रिक्शा चालक तक सब कुछ छोड़ कर शास्त्रीय गायन वादन में रस लेता था. सच मानिये तो तरस जाता हूं ऐसे माहौल को क्या फिर कभी दशहरा के वे दिन वापस लौटेंगे जब पटना के हर गली कूचे में शास्त्रीय संगीत की स्वर लहरियां गूजेंगी.

MUKESH

मै पत्रकार हू


मै पत्रकार हू
हा मैं हूँ पत्रकार 
झूठा अभिमान, झूठा है मेरा गुरुर 
खबरों की तलाश में दिन भर 
ऑफिस दर ऑफिस का लगाता हूँ चक्कर .
ब्रेकिंग- एक्सक्लुसिव की खोज में 
भूल जाता हू 
अपने बीबी बच्चे को 
माँ कहती  है जल्दी घर आना 
बीबी इंतजार में पलके बिछाए सो जाती है 
जब ऑफिस आता हू तो  नहीं रहता घर की याद 
ऑफिस ही दुनिया, खबर बन गई है ज़िन्दगी 
खबरों की तलाश में एक दिन हार जाती है मेरी ज़िन्दगी 
माँ रोती है, बीबी की आँखें पथरा जाती hai
मेरे लाश की इतनी भी कीमत नहीं लगती
की मेरी आत्मा भी खुद पर गर्व कर सके 
माँ, बीबी और  बच्चे की सर्द पुतलियाँ 
पूछती है : क्या मेरे बेटे, पति और पापा की कीमत तीन हजार रुपये है ?
हा मै हूँ पत्रकार, मेरी भी लगती है कीमत 
जीते जी न सही, मरने के बाद 
यही है मेरी ज़िन्दगी, जिसकी कीमत है ३ हजार