Thursday 22 September 2011

शौक जो अब जूनून बन गया..... माउन्ट एवेरेस्ट विजेता निरुपमा पांडे से मुकेश की बातचीत

सिवान जिले के जमुआ जलालपुर में  पली बढ़ी निरुपमा पांडे [एयरफोर्स में क्लास १ गजेटेड ऑफिसर] का साहस बिहार की दूसरी लड़कियों ही नहीं लड़कों के लिए भी प्रेरणास्रोत का काम करेगा.  
माउन्ट एवेरेस्ट पर तिरंगा फहराने वाली बिहार की पहली महिला निरुपमा पांडे से ९ जुलाई २०११ मेरी मुलाकात हुई. वे एक प्रोग्राम में बतौर चीफ़ गेस्ट  की हैसियत से पटना आई थीं.  उनके जीवन साथी प्रकाश झा भी साथ में थे. उनका बात करने का एक अलग अंदाज था. बात बात पर मंद मुस्कान, कुछ देर की मुलाकात में ही बिलकुल अपनापन सा  लगने लगा.  उन्होंने न सिर्फ एवेरेस्ट फतह की बातों के बारे बताया बल्कि अपनी निजी ज़िन्दगी के बारे में भी हमसे शेयर की.
 बचपन से निरुपमा को mauntaning का शौक  था. यह शौक धीरे-धीरे जूनून में बदल गया. और वे हमेशा सोते जागते, उठते बैठते एक सपना देखने लगी एवेरेस्ट पर तिरंगा लहराने की.  बताती हैं की जब कोई इन्शान कुछ करने को सोंच ले तो हर मुश्किल काम आसान हो जाता है.
बिहार के लिए कुछ करना चाहती हैं . एवेरेस्ट की छोटी पर जाकर निरुपमा ने तो फतह हासिल कर ली लेकिन बिहार के योवओं को स्पोर्ट्स की tranning  देने में कब कामयाब होती हैं उन्हें इसका बेसब्री से इंतजार है. उन्होंने बताया की मेरी चाहत है की बिहार के लिए कुछ करूँ.  शौक धीरे धीरे जूनून में बदल गया और एयरफोर्स ज्वाइन करने के बाद माउन्ट एवेरेस्ट पर जाने का सपना देखने लगी और कामयाबी मिली. अपने पति के बारे में बताती हैं की मेरे पति बहुत supportive हैं. घर , ऑफिस या कही भी support  करते   हैं. एवेरेस्ट के सफलता में मेरे ससाथ थे. उनका यही प्यार मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया. ऑफिस से लौटने के बाद घर के काम काज में हम दोनों एक दुसरे का साथ देते हैं. वे कहती हैं की आज लड़कियां हर छेत्र में आगे बढ़ रही हैं. जो पिछड़ी हुई हैं उसका कारन अशिक्षा है.

आकाश के चमकते सितारों में भी है प्रेरणा

आकाश के चमकते सितारों में भी है प्रेरणा

मुकेश, पत्रकार
 प्रभात खबर,
nida  faazli  

तू इस तरह से मेरी ज़िन्दगी में शामिल है...., होश वाले को खबर क्या ज़िन्दगी क्या चीज़ है... आदि लिखे गानों से लोगों की दिलों में बसने वाले निदा फाज़ली का पटना आना महज एक संयोग था. वे पटना १२ दिसम्बर २००९ को सिमेज के पटना एक प्रोग्राम में आये थे. नए
पौध के संग निदा फाजली ने कुछ समय बिताये तो कुछ पल हमे भी उनसे मुलाकात का मौका मिला. जब मिले तो लगा ही नहीं की मै उसी अजीम शायर से मिल रहा हु, जिनके लिखे गाने अक्सर गुन गुनाया करता था. मैंने उनसे पूछा शायरी लिखने की प्रेरणा कहा से मिली
, इस सवाल पर वे कहने लगे की पूरा संसार प्रेरणाओं की एक पाठशाला है, उड़ाती हुई चिड़ियाँ , जगमगाता आकाश , हमारे आपके सम्बन्ध और वास्ते सभी से प्रेरणा ली जा सकती है. आँखे खोलकर जीयें तो सब प्रेरणा देने को तैयार होता है. सड़क से लेकर आकाश में चमकते सितारों तक में प्रेरणा है , लेकिन शर्त है की प्रेम का रिश्ता बनायें. जब रिश्ता बन जाता है तो एक नारी माँ बन जाती है, पुरुष पिता बन जाता है. रिश्ता नहीं होता है तो अजनबी बन जाते हैं . इसलिए इंसान बन कर इंसानियत पैदा कीजिये. उनका मनन है की बच्चो को हँसाना जीवन की सबसे बड़ी पूजा और परम शक्ति है. यह कहकर उन्होंने तमन्ना फिल्म के लिए अपने लिखे गाने अपना गम लेकर कही नहीं को जाया जाये किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये सुनाये . जवानी का रंग पोलिटिक्स की तरह कच्चा नहीं
निदा फाजली कहते हैं जो हम जी चुके हैं वो अतीत है, जो आने वाला है वह भविष्य है और जो हमारे सामने है वह वर्तमान है. और वर्तमान स्टुडेंट है. उन्होंने कहा यहाँ बच्चों के बीच आकर मै उनकी उम्र में साँस लेने लगा हूँ बच्चा या जवानी बहुत सच्चा होता है, अच्छा होता है, उसका रंग पोलिटिक्स की तरह कच्चा नहीं होता...

जब बदलाव की बात करोगे तो विरोध होगा ही...

प्रभात खबर, पटना में कार्यरत मुकेश की लेखिका मैत्रेयी पुष्प के साथ  ९-११-२००९  को हुई बातचीत 
मैत्रेयी  पुष्पा 

हिंदी कथा को नई दिशा देने वाली साहित्य के विभिन्न सम्मान  से पुरष्कृत लेखिका मैत्रेयी  पुष्पा कहती हैं की लेखक क्या होते हैं, मैं नहीं जानती थी. मुझे पता नहीं था की एक दिन मैं भी लिखूंगी. पता नहीं वह कौन सी खरोंच थी जो मुझे बार बार याद आ जाती. धीरे-धीरे जिसने मुझे लेखिका बना दिया.  पटना तो पहली बार आई हूँ, लेकिन  सम्बन्ध किशोरा  अवस्था से ही है.  २५ साल में शादी की.  पत्नी और माँ की भूमिका निभाने के साथ लिख पढ़ रही हूँ. लिखने का शौक  ४३ साल की अवस्था से लगा.
पुष्पा कहती हैं की जब कोई औरत कुछ लिखती है तो इस तरह से लिखती है की घर वाले उस पर उंगली न उठाये और मै भी इसी तरह से लिखती थी. पति को लगता था की मैं उनके लिए  लिख रही हूँ, जबकि ऐसा नहीं था. मै उन्हें धोखा  नहीं दे रही थी. मै उनसे बस जान बचा रही थी.

आपका नाम मैत्रेयी पुष्पा क्यों ?
मैत्रेयी मेरे जन्म का नाम है, जो पंडित ने नामकरण किया था और पुष्पा पुकारू नाम और बाद में चल कर मै मैत्रेयी पुष्प हो गई. एक औरत जो घर में रहती थी वह दिल्ली में रहकर भी दिल्ली की नहीं हो सकी, उसके बाद लिखने का सिलसिला शुरू हो गया. मैं उस भूमि पटना में बैठी हूँ जहाँ   पहली बार मुझे पहचान मिली. सबसे पहले हिंदुस्तान पेपर में लिखना शुरू किया. इतने पाठक मिले  की  खुद को साहित्यकार समझने लगी. मैंने अपनी लेखनी में औरत को कभी प्रमुख नहीं किया, बल्कि अपने आप लिखते गई और स्त्री पक्ष को प्रमुखता मिलती गयी.

अल्मा कबूतरी लिखने की प्रेरणा कैसे मिली ?
मेरे पास जो अनुभव था, उसकी  गहराई मैं समझ रही थी.  वही कहानियां मेरे पास थी, जिसे मैंने महसूस किया था. जो कहानियां मैंने लिखी वो ऐसी में बैठकर नहीं लिखी जा सकती. मैंने गाँव में जाकर उसको जिया फिर लिखा. मैंने लोकगीत व् लोक कथाओं  से लिखा और सब कुछ उसमे कलमबद्ध किया . पढाई से ज्यादा लोक गीत पसंद था . माँ ने पीट कर पढाया. मेरे पास लोक गीत लोक कथा के सिवा कोई धरोहर नहीं मौजूद था.
राजेंद्र यादव से बहुत कुछ सीखी-  
राजेंद्र साहब के साथ मेरा नाम लिया जाता है. उन्होंने मेरे लिए बहुत कुछ किया . एक एक उपन्यास और किताबें पढ़ने को दिए. मुझ अज्ञान सी औरत के लिए बहुत कुछ किया. मुझे लगता था कोई तो है जो बता रहा है. सिखा रहा है.
जब इंकार किया तो लोग नाराज हो गए-
लड़कियों और स्त्रियों की दशा-दिशा पर जब उनसे पूछा गया तो  उन्होंने कहा की जब बदलाव की बात करोगे तो विरोध होगा ही.  हमारी संस्कार और परंपरा  बहुत महान है. लेकिन मेरे हिसाब से जब मैंने समाज की स्त्रीयों के प्रति मानसिकता को मानने से इनकार किया, संस्कार और परंपराओं को तोड़ने का काम किया तो लोग नाराज हो गए. बदलाब की बात सोंचो तो विरोध होता ही है.
मुझे समीक्षक नहीं पाठक मिले, मेरी लेखनी के न्याय की कचहरी पाठक हैं, पाठकों ने मुझसे लिखवाते चले गए. स्त्रियों की दशा-दिशा ही मेरी लेखनी का आधार है.
शरीर के सिवा कुछ भी नहीं
शरीर के सिवा औरत के पास कुछ भी नहीं है. जब शरीर के आधार पर ही उसे जलाया जाता है मारा जाता है बदनाम किया जाता है और हर पीड़ा दी जाती है तो फिर शरीर को हथियार क्यों नहीं बनाया जाये , शरीर के सिवा उसके पास कुछ भी नहीं है . जब तक किसी की पत्नी , बहु बेटी न हो उसे सम्मान नहीं मिलता . विधवा रहकर जरा जी लें? , समाज में लोग शरीर को सेक्स का एक टूल क्यों समझते हैं ? क्या स्त्री के  शरीर में क्या खाली  अश्लीलता है? आधी उम्र हमने घूँघट ओढा है. उतरा तो बदनाम हो गए. जवाब देने लगे तो बाचाल हो गए , औरत के शरीर पर ही सारा बंधन होता है ,  पुरुष सेक्स चाहे तो ठीक और औरत चाहे तो बदचलन ? औरत की भी कुछ स्वाभाविक इच्छाएं हैं.
पुरुष और स्त्री दोनों बाजारबाद की चपेट में बाजारबाद और स्त्री यह भी एक नया नारा है. आते तो पुरुष भी हैं लेकिन लोगों की निगाहें लड़कियों पर ही  जाती है. पुरुष और स्त्री आज दोनों बाजारबाद की चपेट में हैं.

Friday 9 September 2011

हमेशा याद आयेंगे इतिहासकार प्रोफेसर आरस शर्मा

प्रो रामशरण शर्मा इतिहासकार  
 रुकना तेरा काम नहीं चलना तेरा काम, चल चल रे नौजवान तुम आगे बढे आफत से लड़े जा आंधी हो या तूफान..... ये चंद पंक्तियाँ बिहार के उस हस्ती, प्रोफेसर रामशरण शर्मा की है जो ९२ साल की उम्र में भी एक २४ साल के नौजवान सा हौसला रखते थे. बात- बात में इन पंक्तियों को सुनना और गंभीर बात को भी सहजता के साथ कहने का उनका अपना अंदाज था. बिहार की मिटटी में पले बढे उन चंद लोगों में से थे,  जिन्हें पाकर बिहार ही नहीं पूरा भारत गौरव महसूस करता था .  प्राचीन भारतीय इतिहास लिखने वाले प्रोफेसर रामशरण शर्मा अब हम सभी के लिए एक इतिहास बन गए हैं. भले ही उनसे अब किसी बात नहीं होगी , लेकिन वे इतिहास की किताबों में हमेशा नजर आयेंगे  .
बस एक था सपना, मिटे अमीरी गरीबी की दीवारें 
प्रो. शर्मा की मृत्यु से कुछ दिनों पहले उनसे मेरी बात हुई थी, उन्होंने अपनी हसरतों के बारे में बताया था. उनका बस एक था ख्वाब. वह भी अपने लिए नहीं अपनों के लिए {गरीबों} . चाहते थे बिहार और भारत से गरीबी मिटे. गरीबों को खाना मिले. कभी  वो शोषित न हो, लेकिन वे यह सब जीते जी नहीं देख सके. अधूरे ख्वाब  लिए २० अगस्त को हमेशा के लिए दुनिया से अलविदा कह चले गए.
३ रुपये से चलता था परिवार
 २९ जुलाई २०११ को रामशरण शर्मा से उनके घर पर मेरी करीब आधे घंटे तक बातचीत हुई थी.. वे अपने आवास में एक छोटे से पलंग पर लेटे दर्द से कराह रहे थे. पुरे शरीर पर बड़े बड़े फोले उग आये थे. कुछ काले तो कुछ बुलबुले के आकार में सफ़ेद . फोले से पस निकल रहा था. कोई भी ऐसा भाग नहीं बचा था जहा घाव नहीं. शरीर में इतनी ताकत नहीं रह गई थी की दो कदम चल सके. बिस्तर पर करवट बदल बदल कर दीं बीता रहे थे.  उनके पास गया और पूछा सर अपने बारे में कुछ बताये , इतिहास के प्रति आपकी रूचि कैसे बढ़ी? वे कहने लगे बचपन से ही इतिहास में रूचि थी. कुछ भी नहीं था हमारे पास. ५ बिगहा जमीन थी, पिता जी किसान थे. ३ रूपये से किसी तरह परिवार चलता . इसी में मेट्रिक की पढाई. 
ये किताबों का घर है बाबू
यह सिर्फ एक घर नहीं , किताबो का घर का घर है बाबू. कितनी किताबें लिखी और कितने देश का भ्रम किया. लन्दन में पढाया कनाडा में पढाया और न जाने कहा कहा. मैंने अपनी ज़िन्दगी से संतुष्ट हूँ. सारी जिंदगी पुस्तक लिखने और पढने में गुजर गया.  
२९ जुलाई २०११ को प्रो रामशरण शर्मा से मुकेश से हुई बातचीत का अंश

Wednesday 7 September 2011

जब भी आजमाया है बड़ी चोट खाई है
जख्मो पर निशान अपनों के ही पाए हैं
आया नया साल है
 क्या बताएं क्या हाल है?
मत पूछो क्या हाल है ?
मुह में रोटी दाल नहीं तन फटेहाल है
मजबूर हैं रोने को कहने को खुशहाल हैं
मत पूछो क्या हाल है ?  
जिन्हें रहनुमा हम बनाते हैं हमे मोहरा वो बनाते हैं
सियासी खेल के हर नुस्खे हमी पे आजमाए जाते हैं
लूटा जो राजा बना बाकी तो कंगाल हैं
अरे जीते हैं चैन से से वो होते हम हलाल है
मत पूछो क्या हाल है ?------------

जफा और वफा

ये जफा का दौर है, जिसमे वफ़ा कुछ भी नहीं आप ने गर मुझको छला इसमें नया कुछ भी नहीं.
अहले सरमाया ही हैं सनम हर चीज़ के मालिक इस जमे में तेरा और मेरा कुछ  भी नहीं.
पत्थरों तुम ही बताओ   तुम्हे पूजूं मैं किस लिए जब तुम्हारी पूजा से मिला कुछ भी नहीं.
चाहते हो एस करना तो वतन को लूट  लो ये  जुर्म है दोस्त वो जिसकी सजा कुछ भी नहीं
जहा सड़कों पर सरेआम लूट जाती हो ज़िन्दगी वहा बेबसी के सिवा कुछ भी नहीं 
जहा   सड़क से संसद और न्यालय तक बिक चुकी है,  वह आरजू और मिन्नत कुछ भी नहीं