रुकना तेरा काम नहीं चलना तेरा काम, चल चल रे नौजवान तुम आगे बढे आफत से लड़े जा आंधी हो या तूफान..... ये चंद पंक्तियाँ बिहार के उस हस्ती, प्रोफेसर रामशरण शर्मा की है जो ९२ साल की उम्र में भी एक २४ साल के नौजवान सा हौसला रखते थे. बात- बात में इन पंक्तियों को सुनना और गंभीर बात को भी सहजता के साथ कहने का उनका अपना अंदाज था. बिहार की मिटटी में पले बढे उन चंद लोगों में से थे, जिन्हें पाकर बिहार ही नहीं पूरा भारत गौरव महसूस करता था . प्राचीन भारतीय इतिहास लिखने वाले प्रोफेसर रामशरण शर्मा अब हम सभी के लिए एक इतिहास बन गए हैं. भले ही उनसे अब किसी बात नहीं होगी , लेकिन वे इतिहास की किताबों में हमेशा नजर आयेंगे .
बस एक था सपना, मिटे अमीरी गरीबी की दीवारें
प्रो. शर्मा की मृत्यु से कुछ दिनों पहले उनसे मेरी बात हुई थी, उन्होंने अपनी हसरतों के बारे में बताया था. उनका बस एक था ख्वाब. वह भी अपने लिए नहीं अपनों के लिए {गरीबों} . चाहते थे बिहार और भारत से गरीबी मिटे. गरीबों को खाना मिले. कभी वो शोषित न हो, लेकिन वे यह सब जीते जी नहीं देख सके. अधूरे ख्वाब लिए २० अगस्त को हमेशा के लिए दुनिया से अलविदा कह चले गए.
३ रुपये से चलता था परिवार
२९ जुलाई २०११ को रामशरण शर्मा से उनके घर पर मेरी करीब आधे घंटे तक बातचीत हुई थी.. वे अपने आवास में एक छोटे से पलंग पर लेटे दर्द से कराह रहे थे. पुरे शरीर पर बड़े बड़े फोले उग आये थे. कुछ काले तो कुछ बुलबुले के आकार में सफ़ेद . फोले से पस निकल रहा था. कोई भी ऐसा भाग नहीं बचा था जहा घाव नहीं. शरीर में इतनी ताकत नहीं रह गई थी की दो कदम चल सके. बिस्तर पर करवट बदल बदल कर दीं बीता रहे थे. उनके पास गया और पूछा सर अपने बारे में कुछ बताये , इतिहास के प्रति आपकी रूचि कैसे बढ़ी? वे कहने लगे बचपन से ही इतिहास में रूचि थी. कुछ भी नहीं था हमारे पास. ५ बिगहा जमीन थी, पिता जी किसान थे. ३ रूपये से किसी तरह परिवार चलता . इसी में मेट्रिक की पढाई.
ये किताबों का घर है बाबू
यह सिर्फ एक घर नहीं , किताबो का घर का घर है बाबू. कितनी किताबें लिखी और कितने देश का भ्रम किया. लन्दन में पढाया कनाडा में पढाया और न जाने कहा कहा. मैंने अपनी ज़िन्दगी से संतुष्ट हूँ. सारी जिंदगी पुस्तक लिखने और पढने में गुजर गया.
२९ जुलाई २०११ को प्रो रामशरण शर्मा से मुकेश से हुई बातचीत का अंश
यह पढ़ने में दिक्कत हो रही है।
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